हाथरस की यह मजबूरी सिर्फ 35 किमी की दूरी
-बाहरी प्रत्याशियों का दंश झेलता आ रहा है हाथरस
-1984 तक कांगे्रस पर महरवान रही हाथरस की तनजा तो 1991 से भाजपा के प्रत्याशी को ही चुन कर संसद भेज रही जनता
संजय दीक्षित
हाथरस। ‘‘अरे हाय हाय ये मजबूरी ये मौसम और ये दूरी, मुझ पल पल है तड़फाये एक दिना......’’ फिल्म ‘‘रोटी कपड़ा और मकान’’ के गाने के यह बोल लोकसभा हाथरस पर भी सटीक बैठते हैं। क्योंकि क्षेत्र की समस्या व लोगों की पीड़ा के निराकरण को अब तक हुए लोकतंत्र के 17 समरों को प्रतिनिधित्व 17 में 12 वार वाहरी लोगों को सौंपा गया है। मजे की बात तो यह है कि यह 18 लोकतंत्र के इस यज्ञ में 18 वीं वार भी आहूतियां देने के लिए लोकल प्रत्याशियों का पूर्णतः अभाव दिखाई दे रहा है।
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| हाथरस के प्रथम सांसद नरदेव स्नातक को दुर्लभ चित्र |
यह हाथरस की पीड़ा ही कही जा जा सकती है कि लोकसभा के लिए यहां के मतदाताओं को अब तक 17 वार हुए मतदान में 12 वार वाहरी प्रत्याशियों को सांसद बनाकर लोकसभा भेजा है। लोगों के बोलों से निकली बातों पर जाएं तो यह सबसे बड़ी पीड़ा है कि हर विधानसभा और लोकसभा का एक अलग-अलग भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएं होती है। अगर क्षेत्र से ही किसी प्रत्याशी को यहां का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिले तो वह उनको अच्छी तरह से निदान की ओर ले जा सकता हैं, लेकिन इसको मजबूरी कहें या दुर्भाग्य कि हाथरस के विकास और उत्थान में वाहरी लोगों का दंश महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
अगर 1962 के उपचुनाव को छोड़ दें तो देश की स्वतंत्रता को लेकर अहींसा का पाठ पड़ाकर लगातार कांगे्रस हाथरस क्षेत्र के मतदाताओं को 1952 से 1971 तक रिझाने में सफल रही ![]() |
| बिना इनवेंस्टमेंट, न कोई झंझट, न कोई रिस्क। ऐसा है हर्बलधारा का बिजनेस। अपने काम के स्वयं मालिक |
भाजपा के खाते में इस सीट को देती रही है। इस समय में 1996 से अलीगढ़ के किशनलाल दिलेर हाथरस की जनता सीट गिफ्ट में देकर संसद में सिफ्ट करती रही। जबकि 2009 में भाजपा-रालोद गठबंधन के चलते यहां रालोद की प्रत्याशी रहीं सारिका सिंह बघेल को जनता ने संसाद भेजा, लेकिन बजह फिर भी भाजपा ही रही। भाजपा ने 1991 में डाॅ.लालबहादुर रावल के बाद 2014 में यह ऐसा दूसरा मौका था जब भाजपा ने राजेश दिवाकर को टिकट देकर लोकल प्रत्याशी के रूप में उतारा और हाथरस की जनता ने उनको खुलकर बोट दिया और उन्होंन ने क्षेत्र से एक बड़ी जीत दर्ज की। क्योंकि उन्होंने बसपा के मानोज कुमार सोनी को करीब तीन लाख से अधिक वोटों से भी पराजित किया था। भले ही कुछ मुद्दों पर राजेश का विरोध रहा हो, लेकिन हाथरस की जनता पर फिर से भाजपा नेतृत्व ने बाहरी प्रत्याशी का जो दाव खेला है। इसके परिणाम सार्थकता की परिधी में आएंगे यह भविष्य की गोद में हैं, मगर यह जरूर है कि भाजपा के राजवीर को संसद की यह ढगर इतनी आसान साबित होने वाली नहीं है। एक तो वाहरी प्रत्याशी का ठप्पा, दूसरा लोगों से जनसंपर्क के लिए वक्त का अभाव और फिर स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों को वह कितना तैयार कर पाएंगे यह बात भी उनकी जीत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगी।



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