क्षेत्र है भगवा और तारीफ नीले की आखिर क्यों ? क्या कहीं पर इशारा कहीं पर निगाएं, माजरा क्या है जनाव
संजय दीक्षित
हाथरस 19 अप्रैल। ‘दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम’ यह लोकोक्ति पुरानी जरूर है, लेकिन वर्तमान में फोटो खींचती है राज और नीति का। भाईसहाब समझदार के लिए इसारा काफी होता है। पहले मौर्य शासक थे, लेकिन अब जनप्रतिनिधि हैं। आखिर माजरा क्या है जो अचानक पुराने मित्रों की याद आ गई। वह भी इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर। ऐसा प्रतीत होता है पारा बदलने पारा बदलने वाला है।
जी हां! हम बात इन दिनों राजनीतिक हलकों में चल रही क्रिया और प्रतिक्रियाओं पर कर रहे हैं। अभी हाल ही में भाजपा के एक विरष्ठ नेता जी ने बड़ी प्रतिक्रिया की है और उदाहरण रामचरित मानस से दिया है। जिक्र किया है भरत के प्रश्न का कि राजा राम के बिना कैसे होता राज्य ? उत्तर भी उन्होंने ही अपनी टिप्पणी में दिया है कि जब राजा राम वनगमन पर थे तो 14 वर्ष तक उनकी खड़ामुओं ने राज्य किया है। समय की बलिहारी है। उपभोग की वस्तुएं वहीं हैं, लेकिन समय परिवर्तन के साथ उनका नाम बदल गया है। पहले लोग खड़ामू ही पहनते थे, लेकिन अब वह जूटा या चप्पल कहलाते हैं। हालांकि नेताजी की टिप्पणी पर उनके ही एक वरिष्ठ नेता मित्र ने लहेजा बदलने और शालितनता की मांग की थी और उन्होंने मांग भी स्वीकारली। कहानी में भले ही आपको टिव्यूस्ट् न आया हो, लेकिन जब एक इलेक्ट्रो मीडिया चेनल पर नीले से भगवा में आए नेताजी ने यह कहा कि माया का शासन अच्छा था तो इसके मायने क्या बनते हैं। समझलो कहीं न कहीं कहानी में झोल है। मंसूबों में कहानी का निर्मण हो रहा है। क्या अब नीले की ओर जाने का इसारा है वा वास्तव में ही जनता की पीड़ा का इजहार था या फिर हावी नौकरशाही का खौफ। खैर जो भी हो कहानी में कुछ न कुछ तो झोल है।
क्या कहते हैं बुद्धजीविः-
अधिवक्ता केसी निराला एडवोकेट कहते हैं कि पहले काम कर के लोग राजनीति में आते थे और अब काम करके। अर्थात पहले नामा के लिए लोग राजनीति में आते थे और समाजसेवा का भाव रखते थे, लेकिन अब कमाई के बाद नोट कमाने के बाद वोटों के माध्यम से राजनीति में आते हैं। यह राजनीति का यह व्यापारीकरण बंद होना चाहिए तो निश्चित ही फिर से परिवर्तन होगा।
अधिवक्ता राजपाल सिंह दिशवार कहते हैं कि जो उम्मीद के साथ जनता ने सपोर्ट दिया था शायद उम्मीदें धूमिल हो रही हैं। जो आने वाले समय के परिणामों को प्रभावित करेगी।
अधिवक्ता गोविंद उपाध्याय कहते हैं राजनीति समाज के उत्थानों के लिए होनी चाहिए, लेकिन चंद लोगों का ही उत्थान हो रहा है। जनता परेशान है। समस्याओं का समाधान के नाम पर कोरमपूरा हो रहा है। किशनों का भले की कर्ज माफ हुआ हो, लेकिन क्या किसानों तक वह माफी पहुंच पाई है। क्या किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य मिल पा रहा है ? क्या व्यापार और व्यापारियों की सुरक्षा का दायित्व भी सरकार का नहीं है ? सारे के सारे नियम और कानून आमजनता के दायरे में ही आते हैं। क्या प्रतिभाओं को आरक्षण के दंश से जूझकर खत्म होते रहने की कहानिया राजनीतिक खेल से मिटती रहेंगी ? इन सवालातों के अगर जबाव टटोले जाएं तो शायद इंसानियत अपने आपको सुरक्षित महसूस कर पाएगी।

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