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ओज के आका, हास्य-व्यंग्य के काका की जयंती पर नमन

ओज के आका, हास्य-व्यंग्य के काका की जयंती पर नमन
-शर्त पर कूएं में कूदे तो पड़गया देवीदास से नाम निर्भय
-दिल्ली में गूंजा था इंदिरा मां रोटी दे, इंदिरा मां रोटी दे
-स्पष्टवक्ता और बेबाक कविता फिर भी सम्मान नहीं
बाबा निर्भयानंद के साथ साहित्य सम्मान से सम्मानित
 गोपाल चतुर्वेदी सेनानी मदनलाल ‘आजाद’
हाथरस। ओज के महापंड़ितों के संबंध में जब-जब चर्चाएं होंगी तो प्रथम पंक्ति में रस की नगरी ‘हाथरस’ के बाबा निर्भयानंद का नाम सबसे ऊपर आएगा। लंबी और श्वेत-धवल दाढ़ी। भगवा कुर्ता-लुंगी और चमती आंखे और ऊंचा ललाट बाबा के व्यक्ति के अंग थे। माइक पर जब बिना कलम और कागज के जो हाजिर जवाबी निकलती थी तो चलते कदम भी रुक जाते थे। वाकई काव्य की जो छाप छोड़ी उसका जमाना आज भी कायल है। जयंती के मौके पर नमन है ओज के महाविद्यर्थी को।
हिन्दी काव्य के ओज विधा के महायोधा बाबा निर्भयानंद जी की आज जन्मजयंती है। जो हमने देखा था
बाबा निर्भयानंद 
उसको अपने शब्दों में बयां कर रहे हैं कि बाबा ने खुद नए शब्द गढ़े और न सजोकर रखे। मौके पर ही हाजिर जबावी का वह नायाव हीरा थे कि रचनाओं को नई विधा दे डाली। बाबा को जब मौका मिला तो सीधे माइक पर वर्तमान विषयों के पारर्खी बाबा निर्भयानंद मौके पर ही सोचते थे और काव्यपाठ शुरू हो जाता था। यह खाशियत थी कि बाद में पूछने पर भी खुद को ध्यान नहीं रहता था। मजे की बात तो यह है कि कम से कम दो सौ से अधिक किताबें भी उन्होंने लिखडाली। रिकार्ड यह भी रहा कि हिन्दी काव्यमंचों पर बिना कलम और कागज के घंटों ही नहीं भोर की किरण फूटने तक काव्यपाठ का रिकार्ड कई बार बनाया।
एक यादगार कवि सम्मेलनः-
हम को अच्छे से याद है कि हलवाईखाना स्थित मंदिर श्रीदाऊजी महाराज का वर्ष करीब 85-86 में स्वर्ण शताब्दी समारोह था। घंटाघर पर भव्यमंच बना था। राजस्थान के महाकवि बंकटबिहारी ‘पागल’ और बाबा निर्भयानंद के बीच जो हाजिर जबावी कवि सम्मेलन ऐसा था कि जो दस मिनट के लिए घर से निकला था उसको भी पता नहीं चला था कि भोर की किरण सूर्य देव ने कम फोड़ दीं।
ब्रज की देहरी पर जन्म लिया था हिन्दी के इस महा हस्ताक्षर नेः-
ब्रज की द्वार देहरी कहे जाने वाली रस की नगरी ‘हाथरस’ में ही हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर देवीदाश शर्मा का निवास उस स्थान पर था जिस को ब्रज की देहरी हकते हैं। जिसको आज देहली वाले चौक के नाम से जानते है। हालांकि ओज शैली से प्रख्यात देवीदास का नाम बाबा निर्भय हाथरसी के नाम से जाना जाता है और उनका जन्म 1926 में आज ही कि दिन ननिहाल यानि मथुरा के एदलपुर में हुआ था।
बिरासत में मिली यह अनमोल विधाः-
बाबा निर्भयानंद के पिता गनेशीलाल कवि थे और मां काशी शायरा थीं। बाबा ने अपनी काव्य विधा का जूनून 8 वर्ष की उम्र में ही दिखा दिया था। हालात यह थे कि जिस मंच पर बाबा निर्भयानंद होते वहां कवि भी अपनी रचनाओं को बड़े ही सोच समझ कर कहते थे। फिर भी बाबा थे कि चुटिकियां लेते नहीं चूकते थे और बाद में उनकी हाजिर जबावी का उन्हें लोहा मानना ही पढ़ता था। बाबा की बाल में से खाल निकालने की आदत के सभी कायल थे। वह खुद कहते थे, ’मैं शब्द-शब्द की खाल खींच कर कविता बनाता हूं’। मंच पर पढ़ी गई कविता में कहीं किसी शब्द का गलत प्रयोग हो गया तो वे काव्यपाठ के दौरान न सिर्फ उस शब्द की व्याख्या करते थे, बल्कि उसकी बारीकियां समझा देते थे।
ऐसे हुए निर्भयः-
एक अभिनंदन समारोह में साहित्यकारों के साथ बाबा निर्भयानंद
बताते हैं, कि वह बचपन से ही निडर और बेधड़क थे। शहर के दिल्ली वाले चौक में बचपन में बाबा जब पानी भरने गए तो कुछ लड़कों से शर्त लग गई और शर्त के मुताबिक वह बिना किसी डर के कुएं में कूद गए, तभी से उनका नाम निर्भय हो गया। इसी नाम से उन्हें देश भर में ख्याति प्राप्त हुई।
कविता के साथ-साथ वह राजनेता भी थे और पत्रकार भीः-
बाबा ने कविता के अलावा राजनीति में भी हाथ आजमाए और कई बार चुनाव लड़ा, लेकिन जीते एक भी बार नहीं। उनका कहना था कि ’साहित्य हमारे सिर का ताज है और सियासत पैर की जूती, कभी-कभी सिर के ताज को बचाने के लिए पैर की जूती हाथ में लेनी पड़ती है।’ उन्होंने जुगनू आदि कई समाचार पत्र निकाले। दो सौ से ज्यादा काव्य संग्रह प्रकाशित कराए। बाबा अस्सी के दशक में मानसी गंगा सफाई आंदोलन से जुड़े, तभी वह निर्भय हाथरसी से बाबा निर्भयानंद बन तांत्रिक हो गए और वर्ष 1998 में मौत के एक झपट्टे ने उन्हें हमसे छीन लिया।
यह रहा दुखदः-
बाबा स्वभाव से संत थे, सरस्वती के पुत्र थे, स्पष्टवक्ता थे और पीड़ितों के सेवक के रूप में थे। यह ही नहीं व्यंग व हास्य में परमपारंगत इस ओज के महापंड़ित को कभी सम्मान नहीं मिला।
संजय दीक्षित
8630588789

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